दिल्ली ड्रामा दरबार पर सुप्रीम आदेश

.......डा. आशीष कुमार मैसी

भारत की राजधानी दिल्ली वैसे तो भारतीय राजनीति का केंद्र होने के नाते हमेशा चर्चा में रहती है। लेकिन 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार के उद्भव में आने और अपनी विशिष्ट केजरीवाल शैली के चलते यह विवादों के केंद्र में स्थायी रूप से रहने लगी थी। साढे तीन साल के द्वंद के पश्चात् 04 जुलाई 2018 को सर्वोच्च आदेश से उम्मीद बंधी है, क्या दुविधा और द्वंद का यह धुंध छंट जायेगा ?

राजधानी क्षेत्र दिल्ली की इस पूरी व्यथा को समझने के लिये हमें दिल्ली के स्वरूप और उसकी संवैधानिक संरचना को समझना होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 239 में 239 ए ए जोडे जाने के साथ दिल्ली को एक विशेष राज्य का दर्जा 1991 में 69वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा भारत की संसद में प्रस्ताव पारित करके दिया गया। इस प्रावधान का उद्देश्य जनसाधारण की समस्याओं का लोकतांत्रिक समाधान करना था। किसी अन्य केंद्र शासित क्षेत्र के प्रावधानो से अलग, राज्यों के समान एक विधानसभा एवं मंत्री परिषद के माध्यम से दिल्ली की आम जनता के उत्थान के लिये लोक कार्य प्रणाली को विकसित करना है। यह प्रयोग काफी सफल भी रहा।

इसलिये दिल्ली को नेशनल कैपिटल रीजन (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) घोषित किया गया। दिल्ली की इस राजनैतिक घमासान की जड़ में असली मुद्दा अनुच्छेद 239 ए ए है। वैसे गौर से देखें तो यह अनुच्छेद 239 ए ए पूरी तरीके से स्पष्ट परिभाषित है। यह लाट साहब एवं लोक सरकार के अधिकारों एवं सीमाओं की स्पष्ट रूप से व्याख्या करता है।

इस संवैधानिक प्रावधान से एक बात तो उस समय ही स्पष्ट हो गई थी कि दिल्ली की जनता के लिये उसकी अपनी समस्याओं को लेकर लाट साहब नहीं बल्कि दिल्ली की जनता स्वयं अपना भला बुरा तय करने के लिये स्वतंत्र है। लेकिन लाट साहब की परंपरा जोकि ब्रिटिश काल से चली आ रही थी, उसकी जड़े भी काफी गहरी हैं। जिसके चलते शक्ति संतुलन गडबडाने लगा और विशेष रूप से 2015 की अति बहुमत वाली आम आदमी पार्टी की सरकार मंे यह आर या पार के युद्ध का अखाडा बन गया। इससे पहले दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री चैधरी ब्रह्मप्रकाश, श्री गुरमुख निहाल सिंह, श्री मदन लाल खुराना, श्री साहिब सिंह वर्मा, श्रीमती सुषमा स्वराज का बावन दिन का कार्यकाल तथा श्रीमती शीला दीक्षित का सबसे लंबा कार्यकाल 1998 से 2013 तक रहा। लेकिन इन किसी भी कार्यकाल में शक्ति की लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन की चर्चा बाहर न आ सकी।

सातवें मुख्यमंत्री के रूप में अपने प्रथम 48 दिवसीय कार्यकाल में अपनी शक्तियों को लेकर सशंकित अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दिया और एक वर्ष के लिये राष्ट्रपति शासन के पश्चात् अरविंद केजरीवाल पुनः सत्ता में अति बहुमत के साथ वापस लौटे। उनके लौटने से दिल्ली का शक्ति संतुलन एक बार फिर हिला और लाट साहब और जनता के मुख्यमंत्री के बीच तर्क-तकरार टकराव में बदल गया।

सबसे पहले ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर एक चिंगारी उठी और फिर यह लडाई बढते-बढते लोकशाही बनाम नौकरशाही में बदल गई। हर पक्ष अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने और बदनाम करने की कोशिश में जुटते नजर आया। जिसका नकारात्मक असर दिल्ली के प्रशासन तंत्र पर पडा और अनुच्छेद 239 ए ए जिसके द्वारा शक्ति का संचालन होना था, स्वयं कठघरे में खडा हो गया।

ज्ञात रहे कि अनुच्छेद 239 और अनुच्छेद 239 ए ए को ’’नेशनल कैपिटल टेरीटरी आॅफ दिल्ली एक्ट 1991’’ एवं ’’ट्रांजेक्शन आॅफ बिजनेस आॅफ गवर्नमेंट आॅफ नेशनल कैपिटल टेरीटरी आॅफ दिल्ली रूल्स 1993’’ के साथ देखना व समझना जरूरी हो गया। लेकिन इनको सही परिपेक्ष में पढने व समझने से पहले ही टकराव अपने चरम पर पहुंच गया। जिसको दूर करने के लिये सर्वोच्च हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया। 

ज्ञात रहे कि भारत का संविधान शक्ति संतुलन पर आधारित है। इसमें केंद्रीय सूची में वर्णित विषयों पर केंद्र सरकार को, राज्य सूची में वर्णित विषयों पर राज्य सरकारों को तथा समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर संसद एवं विधान मण्डल दोनो को कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन टकराव की स्थिति में संसद द्वारा पारित कानून राज्य कानून के ऊपर प्रभावी माना जाता है। यही शक्ति संतुलन का सिद्धान्त विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को आपस में टकराव और प्रतिरोध को रोकने का सशक्त हथियार साबित हुआ।

04 जुलाई 2018 के ऐतिहासिक निर्णय से एक बार फिर भारत की सर्वाेच्च न्यायपालिका ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस देश में न सिर्फ विधि का शासन है अपितु संविधान की आत्मा हमारे राष्ट्रीय जीवन को चैतन्य रखने में समर्थ है। पिछले कुछ समय से दिल्ली के शासन प्रशासन को लेकर जो उहापोह की स्थिति बन गई थी। वह मा0 सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से खासी हद तक व्यवस्थित होती दिख रही है।

दिल्ली राज को लेकर संविधान में वर्णित जनतांत्रिक सरकार और लाट साहब के बीच जो बहस चल रही थी। अखिरकार 04 जुलाई 2018 को सर्वोच्च आदेश से उसका पटापेक्ष हो गया। इस सुखद स्थिति के लिये सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में बनी संवैधानिक पीठ बधाई की पात्र है।

इस सुप्रीम आदेश ने अनुच्छेद 239 ए ए के विविध प्रावधानो के बारे में जो अस्पष्टता थी, जिसके चलते अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति बनने लगी थी, उसका समाधान कर दिया। केंद्र के पास भूमि, पुलिस, कानून एवं व्यवस्था की कार्यशक्तियों का विशेष अधिकार पहले के समान पूरी स्पष्टता के साथ बरकरार रहा। दिल्ली की कार्यकारी शक्तियाँ दिल्ली विधानसभा की विधायी शक्तियों के साथ सहविस्तारित हैं तथा राज्य विधानसभा एवं राज्य सरकार की समवर्ती एवं राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का तथा उनको मनवाने का पूरा अधिकार है।

लोकतंत्र की आत्मा को जागृत करने वाले इस सुप्रीम आदेश ने लोकसत्ता को दिल्ली के परिपेक्ष में लाट साहब के ऊपर माना है। उपराज्यपाल को एक सीमित शासक मानते हुये मंत्री परिषद की सलाह के लिये अनुच्छेद 239 ए ए (चार) में दिये गये अपवादो को छोडकर सामान्यता बाध्य किया है। अपवाद के रूप में ही वह किन्हीं विषयों को लेकर स्पष्टीकरण के लिये महामहिम राष्ट्रपति के पास जा सकेंगे। इस उपधारा 239 ए ए (चार) का इस्तेमाल रूटीन तरीके से नहीं होगा। 

सबसे महत्वपूर्ण बात इस ऐतिहासिक निर्णय की जो सामने आई है, वह है लोकतांत्रिक सिद्धान्तों के अनुरूप न्यायालय को संविधान की व्याख्या करनी होगी। राज्य के तीनो अंगो के बीच शक्ति का सामंजस्य हो यह आवश्यक है। कोई भी निर्णय जो संविधान सम्मत नहीं है, नहीं चलेगा। भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र और राज्य समन्वय के साथ अपने निर्धारित क्षेत्राधिकार में काम करने के लिये अधिकृत हैं।

जस्टिस चंद्रचूण ने विशेष रूप से उपरोक्त तथ्यों को और स्पष्ट करते हुये संवैधानिक व्याख्या को नैतिकतापरख होने एवं व्यक्ति की प्रधानता के स्थान पर लोकतांत्रिक तौर तरीके और धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त को संविधान के मूल होने में निहित होने पर विशेष जोर दिया है।

लोकतंत्र में चुनी सरकार की जिम्मेदारी उनकी जनता के प्रति जबावदेही के कारण महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर संविधान पीठ ने न सिर्फ संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित किया बल्कि लोकतंत्र को नया बल और संबल प्रदान कर स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र में विरोध का सम्मान जरूरी है। इस पारदर्शी संविधान की व्याख्या से जो सबसे बडी बात स्थापित हुई है, वह है व्यवस्था व्यक्ति से ऊपर है और भारतीय गणराज्य संविधान से संचालित है।



डाॅ. आशीष कुमार मैसी 
सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
पूर्व अध्यक्ष, राज्य अल्पसंख्यक आयोग, उ0प्र0 सरकार
राजनीतिक विश्लेषक एवं समसमायिक विषयों के जानकार

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